कट कर मर
गये अन्गिनत लाचार
सिसक कर घुट
रहे बेबस हज़ार
आवाज़ तो थी
कंठ में बुलन्द
धर काटने वालोन ने की आवाज़ बन्द
वाह रे इन्सान!
गा रहा ब्रह्माण
तेरी खुद्गर्ज़ी के शतक गुणगान।
खून की लाली
से रंगी हुई है
चोली
कहते हैं हम
कातिल नहीं, बस
खेलते हैं होली
पेश करें ऐसा
सुनहरा अलौकिक सपना
कि लगे सारी
रचना को माने वे अपना
वाह रे इन्सान!
गा रहा ब्रह्माण
तेरी खुद्गर्ज़ी के शतक गुणगान।
वैज्ञानिक क्षेत्रौं में हैं वे प्रवीण
द्रष्टिकोण हैं उनके
वाकई नवीन
तर्क वितर्क में
सारे पड़ाव किये
उन्होंने उत्तीर्ण
दूसरे मार्ग पर
चलने वालो के
मन में आई भावना हीन
वाह रे इन्सान!
गा रहा ब्रह्माण
तेरी खुद्गर्ज़ी के शतक गुणगान।
हाहाकार की आवाज़ ने मचाया
ऐसा शोर
जग उठी है पृथ्वी लेकर
तीव्र हिलोर
उसकी अंगड़ाई से डूबेंगे
सारे छोर
प्रलयंकारी होगा वह अत्यंत
भीषणकारी मोड़
वाह रे इन्सान!
गा रहा ब्रह्माण
तेरी खुद्गर्ज़ी के शतक गुणगान।
पथ प्रदर्शित करने वाले
सब मदांध स्वार्थी
रास थामकर जैसे
बना धृतराष्ट्र सारथि
पथ यही विकास
का, देते हुए
साँत्वना
जर्जर हुई धरती,
भविष्य की झलक से भी
काँपती है आत्मा
वाह रे इन्सान!
गा रहा ब्रह्माण
तेरी खुद्गर्ज़ी के शतक गुणगान।
अब तो वह
समय भी गया जब केहते
थे अभी देर नहीं हुई
अब क्या दिखाते
हो, चुल्लू भर
पानी से भी कभी ज्वालामुखी
की आग बुज़ी?
तिजोरी तो भर
ली, लगाकर दाव
पर अपनी ही पृथ्वी
काट ली जब
जहाँ बैठे थे वही टहनी,
तब कौन लगायेगा पार यह दूबती नय्या
तेरी?
वाह रे इन्सान!
गा रहा ब्रह्माण
तेरी खुद्गर्ज़ी के शतक गुणगान।
दूबते हुए इंसान को तो
तिनके का भी रहता है सहारा
क्या पता पश्च्चात्ताप
की ज्वाला में मिल जाये शीतल छाया
लौट आये उस नवयुग में
खोया हुआ नवजात पौरुष
जिसके लिये जन्म हुआ,
हम बन जायें वही उत्तम पुरुष
वाह रे इन्सान! फिर यही
गायेगा ब्रह्माण
तेरी महिमा के शतक गुणगान।